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कर्ण का न्याय

 कर्ण ने अर्जुन से कहा कि आपने जो मेरा कार्य सम्पन्न किया है उसका मेहनताना आप मेरे मित्र दुर्योधन से ले लीजिए।

र्जुन ने कर्ण से कहा कि प्रिय कर्ण आप मेरे भाई दुर्योधन के मित्र होने के नाते मेरे भी मित्र हुए, और उम्र में मुझसे बड़े होने के नाते मेरे लिए आदरणीय भी हैं।

अर्जुन ने कर्ण से आगे कहा कि आपने चार माह पूर्व भी मुझे इस कार्य हेतु बुलाया था, पर मैंने आपसे अनुग्रह किया था कि कृप्या पहले आप भाई दुर्योधन से अनुमति दिलवा दें, क्योंकि भाई दुर्योधन मुझसे किसी कारणवश नाराज़ चल रहे हैं, तब आपने मुझे बताया था कि भाई दुर्योधन मेरे द्वारा आपका कार्य करने की अनुमति नहीं दे रहे।

अर्जुन ने कर्ण से आगे कहा कि अब चार महीनों बाद आपने मुझे यह कहकर बुलाया कि आपने दुयोधन से कार्य हेतु अनुमति ले ली है और पारिश्रमिक भी तय कर लिया था। अबकी बार मै आपके अनुरोध पर आपके विनम्र स्वभाव को देखते हुए आपकी सहायता हेतु आपके कार्यस्थल पर दो दिन परिश्रम करता हूँ। तो इस स्थिति में मुझे पारश्रमिक भाई दुर्योधन से क्यों लेना चाहिए ?

अर्जुन ने कर्ण से आगे कहा कि मैं तो आपके कार्यस्थल पर कार्य करने हेतु इस लिए भी तैयार हो गया था कि वहाँ पर भाई दुर्योधन के मन में जो गलतफहमी हो गई है उसे भी दूर कर दूंगा। और भईया कर्ण मैंने तो पहले ही से सोच रखा था कि अगर आपने मुझे मेरा पारश्रमिक नहीं दिया तो मैं इस बात से भी संतुष्ट हो जाऊंगा कि आपने दो रात अपनी बगल में बिठाकर इज्जत के साथ भोजन करवाया।

कर्ण ने एक पल गवाए बिना अर्जुन से कहा "अर्जुन तुम्हे दुर्योधन के पास जाने की कोई जरूरत नहीं है, यह लो अपना पारिश्रमिक।
(मनोज कुमार विट्ठल)

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